
दिल्ली हाई कोर्ट (Delhi High Court) ने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि भले ही ‘राइट टू प्रॉपर्टी’ यानी संपत्ति का अधिकार अब संविधान में मौलिक अधिकार (Fundamental Right) नहीं रह गया हो, लेकिन यह एक पवित्र संवैधानिक और कानूनी अधिकार (Constitutional and Legal Right) के रूप में आज भी पूरी तरह संरक्षित है। कोर्ट ने सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि राज्य की यह जिम्मेदारी है कि वह नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करे, चाहे वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता हो या संपत्ति का संरक्षण।
दिल्ली हाई कोर्ट का सख्त रुख, नागरिक अधिकारों की रक्षा को बताया राज्य की प्राथमिक जिम्मेदारी
गुरुवार, 8 मई 2025 को सुनाए गए एक फैसले में दिल्ली हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को स्पष्ट चेतावनी दी कि वह नागरिकों की संपत्ति और अधिकारों के हनन को नजरअंदाज नहीं कर सकती। कोर्ट ने यह टिप्पणी एक ऐसे मामले में की जिसमें एक व्यक्ति की जमीन का अवैध अधिग्रहण किया गया था और उसे वर्षों तक न्याय नहीं मिला। इस मामले में कोर्ट ने सरकार को आदेश दिया कि वह संबंधित व्यक्ति को ₹1.76 करोड़ का मुआवजा दे।
कोर्ट ने अपने आदेश में यह दोहराया कि नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना केवल एक प्रशासनिक कर्तव्य नहीं, बल्कि राज्य की नैतिक और संवैधानिक जिम्मेदारी भी है।
संपत्ति का अधिकार: मौलिक नहीं, फिर भी ‘पवित्र’ संवैधानिक संरक्षण प्राप्त
1978 में 44वें संविधान संशोधन के बाद ‘राइट टू प्रॉपर्टी’ को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया था। इसके बावजूद यह अब भी संविधान के अनुच्छेद 300A के तहत एक वैधानिक अधिकार है, जो कहता है कि किसी भी व्यक्ति की संपत्ति उसे विधिक प्रक्रिया के तहत ही छीनी जा सकती है।
दिल्ली हाई कोर्ट ने इस संदर्भ में कहा कि “संपत्ति का अधिकार अब भले ही मौलिक अधिकार नहीं है, पर यह एक संवैधानिक अधिकार है जिसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। इसका उल्लंघन लोकतांत्रिक ढांचे को कमज़ोर करता है।”
सरकार की लापरवाही पर हाई कोर्ट की तीखी टिप्पणी
इस मामले में याचिकाकर्ता ने दावा किया था कि सरकार द्वारा उसकी निजी जमीन को अधिग्रहित कर लिया गया और बिना किसी वैधानिक प्रक्रिया के वर्षों तक उपयोग में लाया गया। याचिकाकर्ता ने यह भी कहा कि उसे इस अधिग्रहण के बदले कोई मुआवजा नहीं दिया गया। इस पर अदालत ने गहरी नाराजगी जताते हुए कहा कि यह एक असंवैधानिक कार्यवाही है और सरकार को इसकी भरपाई करनी ही होगी।
कोर्ट ने सरकार को ₹1.76 करोड़ का मुआवजा देने का निर्देश देते हुए यह भी स्पष्ट किया कि यदि नागरिक अपने अधिकारों की सुरक्षा के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटा रहे हैं, तो यह दर्शाता है कि प्रशासनिक तंत्र विफल हो चुका है।
राइट टू प्रॉपर्टी की सुरक्षा: लोकतंत्र की बुनियाद
अदालत ने यह भी कहा कि नागरिकों को यदि अपनी संपत्ति की रक्षा के लिए लंबे समय तक कोर्ट की शरण लेनी पड़े, तो यह राज्य की जवाबदेही पर सवाल खड़े करता है। “लोकतंत्र में नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी होती है। यदि यह नहीं होता, तो राज्य की वैधता पर प्रश्नचिह्न लग जाता है,” कोर्ट ने स्पष्ट किया।
अदालत ने यह भी जोड़ा कि संपत्ति से जुड़ा अधिकार केवल आर्थिक या भौतिक संपत्ति तक सीमित नहीं होता, बल्कि यह व्यक्ति की सामाजिक सुरक्षा, प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता से भी जुड़ा हुआ है।
भविष्य में ऐसे मामलों में सरकार को सतर्क रहना होगा
इस फैसले को एक मिसाल के तौर पर देखा जा रहा है। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि इससे भविष्य में ऐसे मामलों में सरकार की जवाबदेही और बढ़ेगी। यह फैसला एक स्पष्ट संकेत है कि अदालतें नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं, चाहे वह रिन्यूएबल एनर्जी (Renewable Energy) क्षेत्र में भूमि अधिग्रहण से जुड़ा मामला हो या किसी IPO योजना में सरकार द्वारा की गई भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया।
इस तरह की टिप्पणियां न्यायपालिका की उस भूमिका को रेखांकित करती हैं जो लोकतंत्र में संतुलन बनाए रखने के लिए बेहद आवश्यक है।